बचपन में जब गुरु नानक जी को जनेऊ धारण करवाया जाने लगा तो, उन्होंने भरी सभा में ऐसे जनेऊ की मांग की जो दया से भरपूर हो, सब्र, संयम का हो, जो न कभी टूट सके न जल सके, न कभी मैला हो सके। उनके कुल पुरोहित पंडित हरदयाल ने कहा कि यह जनेऊ धारण करना उच्च जाति की निशानी है और यह लोक प्रलोक में भी रक्षा करता है।
9 साल की छोटी सी आयु में जब गुरु नानक देव जी ने यह कहा कि यदि इतने सारे गुण इसमें हैं तो इस जनेऊ को सबसे पहले मेरी बहन नानकी के गले में डाला जाए क्योंकि वह मेरे से पांच वर्ष बड़ी हैं। यह सुनकर उस सभा में सन्नाटा छा गया हर कोई यह सुनकर हैरान था, तभी पीछे से आवाजें आई की नहीं-नहीं इसे केवल मर्द ही पहन सकते हैं, औरतें नहीं, तो गुरु नानक जी ने सीधे कहा कि जो कच्चा धागा औरत-पुरुष व जाति प्रथा में ऊंच-नीच का भेदभाव पैदा करता हो वह उसे कभी धारण नहीं करेंगे।
आज हमारे समाज में धर्म कर्म के मामले में महिलाओं से भेदभाव किया जाता है, गुरु नानक देव जी प्रथम शख्सियत थे जिन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई। औरत-पुरुष के बीच में भेदभाव को मिटाने के लिए गुरु जी ने बताया कि जब भगवान ने औरत को बनाने में उंच-नीच का भेदभाव नहीं समझा फिर पुरुष को किसने हक दिया ऐसा भेदभाव करने का। स्त्री के स्वाभिमान को जगाने के लिए उन्होंने अपनी अमृत वाणी में कहा है -
"सो क्यो मंदा आखिए? जितुः जंमहि राजान।।
जिस जातपात से आज भी हमारा समाज जूझ रहा है उसी जातपात व ऊंच-नीच के बंधनों को तोड़ने के लिए गुरु नानक देव जी ने उस समय नीच जाति कही जानी वाली मरासी जाति से संबंधित भाई मरदाने को अपना साथी व भाई माना। गुरु ग्रंथ साहिब में भी समानता की इस वाणी का जिक्र मिलता है -
"अविल अल्लाह नूर उपाए, कुदरत दे सब बंदे।।
एक नूर ते सब जग ऊपजया कौन भले कौन मंदे"।।
वे जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने के समर्थक थे। उन्होंने कहा कि जन्म से किसी की जाति ऊंची या नीची नहीं होती। ऊंच-नीच तो अच्छे और बुरे कर्म के माध्यम से तय होती है। मानव के रूप में सामाजिक समरसता के सबसे बड़े गुरु थे नानक जी।